अज़ाब और सबब" शायरी
अज़ाब और सबब"
अज़ाब देकर इतने तू अजब की बात करता है,
मेरी बेरुख़ी के हनूज़ सबब की बात करता है।
हलफ़-ए-वफ़ा उठाकर भी बेवफ़ाई कर डाली शौंक से,
देखो तो गुनाहगार फिर भी रब की बात करता है।
इश्क़ कोई चराग़ तो नहीं कि जब चाहा जला दिया,
सियाह कर के ज़िन्दगी, रौशन शब की बात करता है।
इश्क़ की फिर वही ज़ंजीरें लिए चला है मेरी तरफ़,
यक़ीं कैसे करूँ मैं, अरे तू ग़ज़ब की बात करता है।
"कीर्ति" वो और थी जो बेइंतहा फ़िदा थी तुम पर,
गुज़र चुका वो ज़माना, अरे तू कब की बात करता है।